बीमा का खेल वर्ष 2009-10 में कुल 123 लाख पॉलिसियां रद्द हुई हैं, लेकिन इस दौरान आईआरडीए के पास मात्र 8,592 शिकायतें ही दर्ज थीं।

01/01/2011 11:55

 विगत 12 दिसंबर को भारतीय बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) ने 2009-10 के लिए जो वार्षिक रपट जारी की है, उसकी कई जानकारियां चौंकाने वाली हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, इस दौरान जीवन बीमा की निजी कंपनियों ने हालांकि 19.7 प्रतिशत की दर से नए व्यवसाय में वृद्धि की, लेकिन इनकी पहले से जारी की गई पॉलिसियां भारी संख्या में रद्द हो गईं अथवा जब्त कर ली गईं। आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 में लगभग 123 लाख जीवन बीमा पॉलिसियां रद्द अथवा जब्त की गईं! कई निजी कंपनियों द्वारा रद्द अथवा जब्त हुई पॉलिसियों का अनुपात 50 प्रतिशत से भी अधिक रहा। निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी जीवन बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल की रद्द/जब्त पॉलिसियों का अनुपात कुल 81 प्रतिशत रहा। इससे पिछले वर्ष 91 लाख पॉलिसियां रद्द या जब्त हुई थीं।

यह कोई नई चीज नहीं है। अलबत्ता भारतीय जीवन बीमा निगम का मामला निजी कंपनियों से अलग है। वर्ष 2007-08 में उसकी रद्द/जब्त पॉलिसियों का अनुपात छह प्रतिशत था, जो 2008-09 में घटकर चार फीसदी रह गया, और 2009-10 में भी इतना ही रहा। हालांकि जीवन बीमा के क्षेत्र में एकाधिकार के चलते एलआईसी की इन पॉलिसियों का मूल्य भी बहुत है।
आम तौर पर कोई व्यक्ति अपने और परिवार के भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए जीवन बीमा पॉलिसी लेता है। इसमें आयकर बचाने का लक्ष्य भी होता है। इसके लिए बाजार में तरह-तरह की पॉलिसियां होती हैं। मनीबैक, एनडॉउमेंट, सावधि बीमा और स्वास्थ्य बीमा जैसी पॉलिसियां लोकप्रिय हैं।
एक समय जीवन बीमा पर भारतीय जीवन बीमा निगम का एकाधिकार था। लेकिन 2001-02 से निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी जीवन बीमा की अनुमति मिल गई। अभी तक बीमा क्षेत्र की कंपनियों में विदेशी पूंजी की भागीदारी भी अधिकतम 26 प्रतिशत तक हो सकती है। आज देश में 21 निजी कंपनियां और एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी जीवन बीमा के क्षेत्र में कार्यरत है।
वर्ष 2001 के बाद जीवन बीमा क्षेत्र में कई निजी कंपनियों ने अपना कारोबार प्रारंभ किया। जीवन बीमा क्षेत्र में भारी प्रगति भी देखने को मिली। प्रारंभ से ही इस प्रगति में भारतीय जीवन बीमा निगम का खासा योगदान रहा, लेकिन पिछले दो वर्षों में एलआईसी द्वारा नई जीवन बीमा पॉलिसियां जारी करने की पूर्व की वृद्धि दर में कमी देखने को मिली, जबकि निजी क्षेत्र की कंपनियों ने इसमें भारी वृद्धि दर्ज की। 
यदि हिसाब लगाया जाए, तो पता चलता है कि 2009-10 में लगभग 2,148 अरब रुपये मूल्य की कुल बीमा पॉलिसियां रद्द अथवा जब्त हुई हैं, जबकि 2008-09 में 1,000 अरब रुपये की पॉलिसियां ही रद्द हुई थीं। हालांकि आईआरडीए ने इन रद्द या जब्त पॉलिसियों में दिए गए प्रीमियम का कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन यदि इनमें 20 प्रतिशत भी प्रीमियम दिया गया हो, तो जब्त राशि 430 अरब रुपये होगी। इसका मतलब यह हुआ कि बीमा कंपनियां हर वर्ष एक बड़ी राशि जीवन बीमा पॉलिसियों को रद्द करके कमा लेती हैं।
जीवन बीमा नियमों के मुताबिक, कोई पॉलिसी तभी रद्द मानी जाती है, जब उसका प्रीमियम देय तिथि के 15 से 60 दिनों के बीच नहीं भरा जाता है। जीवन बीमा के क्षेत्र में कुछ न कुछ पॉलिसियों का रद्द होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन इस क्षेत्र की निजी कंपनियों को अपने स्वस्थ विकास के लिए रद्द प्रतिशत को लगातार घटाने का प्रयास करना चाहिए। विशेषज्ञ कहते हैं कि 10 प्रतिशत से ज्यादा रद्द होने का अनुपात खतरे की घंटी है। लेकिन अब जब यह अनुपात 60 प्रतिशत से अधिक हो गया है, तब इस मामले में निजी क्षेत्र की कंपनियों की ईमानदारी पर सवालिया निशान लग चुका है। ये कंपनियां पॉलिसी रद्द होने की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए आर्थिक मंदी को मुख्य कारण बताती हैं, जबकि असलियत यह है कि अपना व्यवसाय बढ़ाने के लालच में ये गलत हथकंडे अपनाकर अपनी पॉलिसियां बेचने का प्रयास करती रहती हैं। ऐसे में पॉलिसीधारक या तो अपनी आवश्यकताओं के विपरीत गलत पॉलिसी को जारी रखकर अपने पहले से दिए गए प्रीमियम को बचाने का प्रयास करता है अथवा अगला प्रीमियम न भरकर पॉलिसी से बाहर आ जाता है। दोनों ही स्थितियों में पॉलिसी धारकों को नुकसान होता है और बीमा कंपनियों को भारी मुनाफा। 
हालांकि निजी बीमा कंपनियां यह मानने को तैयार नहीं कि उनके गलत हथकंडों के कारण पॉलिसियां रद्द अथवा जब्त होती हैं। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी का रद्द या जब्त पॉलिसियों का अनुपात महज चार प्रतिशत होना बताता है कि निजी क्षेत्र की कंपनियों में सब कुछ ठीक नहीं है। 
बेशक आईआरडीए ने ऐसी कंपनियों की असलियत जाहिर कर सराहनीय काम किया है, पर ऐसा लगता है कि पॉलिसीधारकों की शिकायत दर्ज करने के अलावा उसके पास निजी कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। निजी बीमा कंपनियां खुले तौर पर गलत ढंग से अपनी पॉलिसियां बेचकर लोगों को न सिर्फ फंसाती हैं, बल्कि उनका प्रीमियम भी जब्त कर लेती हैं।
दिक्कत यह है कि बीमा क्षेत्र पर नजर रखने का जिस आईआरडीए पर दायित्व है, वह भी ग्राहकों द्वारा की गई शिकायतों के आधार पर ही कार्रवाई करता है। वर्ष 2009-10 में कुल 123 लाख पॉलिसियां रद्द हुई हैं, लेकिन इस दौरान आईआरडीए के पास मात्र 8,592 शिकायतें ही दर्ज थीं। ऐसे में जरूरी है कि आईआरडीए के संविधान में अपेक्षित संशोधन कर आम जनता को इस अनैतिक धंधे से बचाया जाए

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