कोयला घोटाले की जांच की आंच

 कोयला घोटाले की जांच की आंच

 

कोलगेट की मसौदा जांच रिपोर्ट के संबंध में सीबीआइ के हलफनामे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद प्रधानमंत्री के लिए अपने पद पर बने रहना कठिन हो जाना चाहिए। चाहिए शब्द का इस्तेमाल इसलिए कि अब फैसला विपक्ष के दबाव और सोनिया गांधी के फैसले पर निर्भर है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद फौरी टिप्पणी में लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने एटार्नी जनरल और कानून मंत्री का इस्तीफा मांगा है, प्रधानमंत्री का नहीं। तो क्या राम जेठमलानी का आरोप सही है कि भाजपा और कांग्रेस में मिलीभगत है? सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि रिपोर्ट में बहुत अहम बदलाव किए गए हैं। अदालत ने प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिवों पर फटकार लगाई है। सरकार और कांग्रेस पार्टी के लिए इससे अपमानजनक स्थिति नहीं हो सकती। लेकिन मान-अपमान महसूस करने की चीज है। यह सरकार और इसके मुखिया ऐसी सांसारिक भावनाओं से मुक्त नजर आते हैं। मनमोहन सिंह के लिए प्रधानमंत्री पद और कांग्रेस के लिए सत्ता अंतिम सत्य हैं। मान-अपमान की चिंता करना साधारण मनुष्यों का काम है।

सवाल है कि अश्रि्वनी कुमार का अपराध क्या है? उन्होंने जो अपराध किया वह क्यों किया? जाहिर है कि अश्रि्वनी कुमार अपने प्रधानमंत्री को कोयला घोटाले की जांच की आंच से बचाने की कोशिश कर रहे थे। अब दूसरा सवाल है कि जब प्रधानमंत्री ने कोई गलत काम नहीं किया है तो उन्हें बचाने की कोशिश क्यों की जा रही है। कानून मंत्री ने जो किया उससे एक निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि उनकी नजर में प्रधानमंत्री दोषी हैं या उन्हें दोषी ठहराने का पर्याप्त आधार है और प्रधानमंत्री कानून मंत्री के बचाव में खड़े नजर आ रहे हैं। सीबीआइ के बारे में सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि वह पिंजरे में बंद तोता है जो अपने मालिक की बोली बोलता है। सीबीआइ के मालिक प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री चारों और से घिर गए हैं।

कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कार्रवाई किए बिना भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा नजर आना चाहता है। दरअसल, कांग्रेस नेतृत्व इतना भयभीत है कि वह अपने नेताओं-मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं सुनना चाहता। कार्रवाई की बात तो बहुत दूर है। उसे डर है कि जिस तरह से घोटालों का सिलसिला नहीं रुक रहा उसी तरह अगर उसने कार्रवाई शुरू की तो उसका सिलसिला कहां रुकेगा किसी को पता नहीं। आजादी के आंदोलन की वारिस इस पार्टी में आज कोई ऐसा नेता नहीं है जो सच कहने का साहस दिखा सके। गांधी नेहरू के जमाने की बात तो छोड़िए इंदिरा गांधी के समय भी चंद्रशेखर, रामधन, मोहन धारिया और कृष्णकांत जैसे नेता थे। वे पार्टी विरोधी नहीं थे पर वे जब बोलते थे तो उनकी पार्टी ही नहीं विरोधी भी सम्मान से सुनते थे। दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस भविष्य के प्रति भी उम्मीद नहीं जगाती। पिछले महीने भर से अदालत, संसद और सड़क पर हंगामा मचा हुआ है, पर क्या किसी ने सुना कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के क्या विचार हैं। क्या ऐसा लगता है कि इस सरकार और पार्टी को तो छोड़िए इस देश से भी उनका कोई सरोकार है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनकी चुप्पी हजारों सवालों की आबरू बचा लेती है। पर भ्रष्ट लोगों के बचाव में ही उनकी चुप्पी क्यों टूटती है, उन्हें देश को बताना चाहिए। अब सवाल है कि राहुल गांधी की चुप्पी किसकी आबरू की रक्षा कर रही है। उनकी सरकार और पार्टी की आबरू तो भरी अदालत से लेकर चौराहे तक नीलाम हो रही है।

कांग्रेस प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कानून मंत्री अश्रि्वनी कुमार और रेल मंत्री पवन कुमार बंसल का इस्तीफा लेगी या नहीं यह वही जाने पर एक बात तो तय है कि अगले लोकसभा चुनाव में मनमोहन की सरदारी उसे भारी पड़ेगी। इसलिए पार्टी ने सरकार और प्रधानमंत्री से दूरी बनाना शुरू कर दिया है। गांधी परिवार के रणनीतिकार सक्त्रिय हो गए हैं। कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी चाहती हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे मंत्री इस्तीफा दे दें। यह भी कहा जा रहा है कि अश्रि्वनी कुमार और पवन बंसल प्रधानमंत्री के आदमी हैं और वह उन्हें बचा रहे हैं। इस सादगी पर कौन न मर जाए। कौन विश्वास करेगा कि सोनिया गांधी जो चाहती हैं उसे रोकने की हिम्मत मनमोहन सिंह में है। पिछले नौ साल में मनमोहन सिंह ने कभी हिम्मत दिखाई हो ऐसा तो किसी ने देखा-सुना नहीं।

प्रधानमंत्री अब सीधे निशाने पर हैं। देश की सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी के बाद प्रधानमंत्री के सारे कवच ध्वस्त हो गए हैं। राजनीतिक शतरंज के इस खेल में राजा को शह मिल चुकी है। राजनीति में मात बोलने का अधिकार मतदाता के पास होता है। इसलिए मात के लिए लोकसभा चुनाव के नतीजे तक इंतजार करना पड़ेगा। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने पिछले नौ साल में एक नई आर्थिक नीति का ईजाद किया है। इस नई आर्थिक नीति की खूबी यह है कि यह केवल सरकारी पार्टी के नेताओं और उनके परिजनों को अमीर बनाती है। देश को उम्मीद थी कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री देश की गरीबी दूर करने के लिए आर्थिक नीतियां और कार्यक्त्रम बनाएंगे। पर ऐसा लगता है कि इन्ही लोगों को उन्होंने देश मान लिया है।

ऐसे में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे जहां कांग्रेस के लिए राज्य में खुशखबरी लाए हैं, वहीं लोकसभा चुनाव के लिए खतरे की घंटी। कर्नाटक का संदेश साफ है कि मतदाता भ्रष्ट और निकम्मी सरकार को सत्ता से बाहर ही रखना चाहता है। इसके लिए किसे जिताना पड़ रहा है इसकी वह परवाह नहीं करता। कर्नाटक की हार भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव में जीत की उम्मीद बन कर आई है। कांग्रेस की हालत यह है कि उसे कर्नाटक की जीत के जश्न में मातम की धुन सुनाई दे रही है। इस मातमी धुन को धीमा करने के लिए कांग्रेस को नया रेल मंत्री और कानून मंत्री ही नहीं चाहिए, नया प्रधानमंत्री भी चाहिए। क्या सोनिया गांधी इसके लिए तैयार हैं? क्या कांग्रेस मनमोहन सिंह को लेकर मई तक इंतजार कर सकती है। क्या यह सरकार सत्ता में बनी रह सकती है? क्या तत्काल लोकसभा चुनाव की घोषणा करके कांग्रेस और बड़े नुकसान को रोक सकती है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब कांग्रेस और उसकी सरकार को फौरन खोजने हैं। उसके पास सत्ता भले हो पर समय नहीं है। सरकार है पर उसका इकबाल नहीं है। नेतृत्व है पर नैतिक शक्ति नहीं है। अब जनता के फैसले की घड़ी आ गई है।


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