गद्दाफी की छिपी कब्र से न जाने कब फूट पड़े आतिशफिशां प्रो. भीमसिंह

गद्दाफी की छिपी कब्र से न जाने कब फूट पड़े आतिशफिशां  प्रो. भीमसिंह

 
    लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी की नृशंस हत्या के फौरन बाद नाटो का हमला खत्म हो गया, लेकिन इसने तेल-सम्पन्न इस देश के भविष्य पर अनेक कड़वे सवाल पैदा कर दिये हैं। लीबिया का क्षेत्रफल 17,59,540 वर्ग कि.मी. है और इसके उŸार में भूमध्यसागर है, पूर्व में मिस्र, पश्चिम में ट्यूनीशिया और अल्जीरिया और दक्षिण में चाड, निगर और सूडान हैं। लीबिया की आबादी मात्र 65 लाख हैै। इन कड़वे सवालों का जवाब तो आने वाली घटनाएं ही दे सकती हैं। जैसा कि पश्चिम ने गद्दाफी को ‘जालिम तानाशाह‘ प्रचारित किया और वह विद्रोही फौजों की हिरासत में मारा गया, जो अमेरिका-नीत नाटो की सख्त कमान में काम कर रहे थे। 21वीं सदी की शुरुआत में गद्दाफी की हिरासत में नृशंस हत्या ने नाटो के माथे पर ऐसा कलंक लगा दिया है, जिसे अरब सागर के पूरे पानी से भी नहीं धोया जा सकता। विश्व समुदाय और इतिहासविद् शायद उनके साथ इन्साफ कर सकें और उन घटनाक्रमों की समीक्षा कर सकें, जिनके कारण ईराक, यूगोस्लाविया और अब लीबिया के लोगों पर पद्धति को लोकतंत्रीय करने के नाम पर जुल्म ढाए गये। राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का सरेआम दुनिया के सामने न्यायिक कत्ल कर दिया गया। यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति स्लोबोदान मिलोसेविच को हेग के राष्ट्रसंघ अपराधिक कारावास में जहर देकर मार दिया गया, जब अमेरिका उनके खिलाफ कोई मामला साबित नहीं कर सका। प्रो. भीमसिंह (इस लेखक को) और रामसे क्लार्क को राष्ट्रसंघ अपराधिक न्यायालय में मिलोसेविच के मामले में बहस करने की इजाजत नहीं दी गयी। 
    कर्नल गद्दाफी उनकी हिट-लिस्ट में थे। उन्होंने त्रिपोली में उनके घर पर मिसाइल दागी, गद्दाफी तो बच गये, लेकिन उनकी बेटी मारी गयी। पश्चिमी नेताओं और मीडिया ने अफ्रो-एशियन दुनिया के नेतृत्व पर इल्जाम लगाया, जिन्होंने अमेरिकी कमान को नहीं माना। किसिंजर ने दुनिया की महानतम् नेता श्रीमती इंदिरा गांधी को ‘कुतिया‘ तक कह डाला था, जब उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के दौरान अमेरिका के हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया था। सद्दाम हुसैन ने अमेरिकी हमले का जोरदार मुकाबला किया तो उनका अपहरण कर लिया गया, झूठे ट्रायल में फंसाया गया और आखिर में सूली पर लटका दिया गया। राष्ट्रपति मिलोसेविच ने यूगोस्लाविया के अधिकारों की रक्षा की, तो उन्हें निष्कासित कर दिया, उठा लिया और जेल में जहर देकर मार डाला गया। अरब दुनिया के महानायक यासिर अराफात को, जिन्होंने फिलस्तीन को सार्वभौमिक देश का दर्जा देने सम्बंधी एक समझौते पर इजरायली प्रधानमंत्री के साथ हस्ताक्षर किये थे, उन्हें आखिरकार जियोवादी ताकतों की शह पर बेइज्जत किया गया, रामल्ला में उनके राजकीय निवास की दूसरी मंजिल में कैद कर दिया, जहां वे दो साल तक यातना भुगतते रहे और आखिर में उन्होंने फ्रांसीसी अस्पताल में जाकर मरना पसंद किया। जियोवादी धड़े का अमेरिका पर प्रभाव का उस समय पिछले सप्ताह तब पर्दाफाश हो गया, जब अमेरिका ने यूनेस्को में फिलस्तीन के दाखिले का सफलता से विरोध किया।
    पैट्रीस लुमुम्बा, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मार्टिन लूथर किंग और यहां तक कि कैनेडी तथा तीसरी दुनिया के कई अन्य उभरती हुई शख्सियतें सीआईए द्वारा समर्थित अन्तर्राष्ट्रीय साजिश की शिकार बन गयी।
    हो सकता है गद्दाफी तानाशाह रहा हो, लेकिन फिर भी कुछ बादशाहों, शेखों से बड़ा जालिम नहीं था, जो व्हाइट हाऊस का पूरा भरोसा हासिल किये हुए हैं। गद्दाफी की ‘ग्रीन बुक‘ कुछ अरब शासकों के क्रोध का कारण बनी। गद्दाफी के नाटो को इन्कार और एंग्लो-अमेरिकन धड़े के निर्देशों के अस्वीकार किये जाने पर उन्हें उनकी हिट-लिस्ट में शामिल कर दिया। अमेरिका की सबसे बड़ी दिलचस्पी तो अरब दुनिया के तेल का हड़पने में रहा है। लीबिया विश्व का ऐसा नौवां देश है, जिसमें चार करोड़ बैरल तेल के भंडार हैं। दूसरे, लीबिया अफ्रीका की खनिज सम्पदा सम्पन्न भूमि के लिए ‘गेटवे‘ है, जिस पर आधी सदी से अमेरिका नजर गड़ाए हुए रहा है। अमेरिका की दिलचस्पी भूमध्यसागर को कब्जे में लेने की रही है। गद्दाफी और सद्दाम हुसैन उनके लिए कोबरा जैसे थे, जो अरब दुनिया के तेल और पानी पर काबिज थे। लीबियाई नेताओं के सम्बंध में प्रचार करते हुए दुनिया के जियोवादी नियंत्रित मीडिया ने विरोधी प्रचार किया हो, लेकिन गद्दाफी शासन के समय लीबिया में जो क्रांतिकारी प्रगति हुई थी उसने उसको ढांप दिया। 40 वर्षों में लीबिया की साक्षरता 93 प्रतिशत तक पहुंच गयी, जो तीसरी दुनिया में सबसे ऊंची है। लीबिया का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 14000 अमेरिका डालर से भी ऊपर हो गया, जो राष्ट्रसंघ के 120 सदस्य देशों से अधिक था।
    सन् 2011 तक लीबिया का किसी बाहरी एजेंसी में एक डालर भी नहीं था। खेती करने वाले हर आदमी को मुफ्त जमीन बांटी गयी। इसी तरह कानूनी सहायता और चिकित्सा तथा शिक्षा के लिए राज्य की तरफ से अनुदान दिया जाता था, जो छात्र बाहर जाकर अपनी पढ़ाई करना चाहते थे, उन्हें भी यह तानाशाह आर्थिक सहायता देता था। लीबिया पर एक नजर डालने से पता लगता है कि गद्दाफी के शासन वाला लीबिया दुनिया का एकमात्र देश था, जहां नागरिकों को बिजली का बिल नहीं देना पड़ता था, न ही किसी भी तरह के कर्ज पर ब्याज वसूला जाता था और हरेक माता-पिता के लिए एक घर होता था। हालांकि गद्दाफी के माता-पिता अभी भी एक टेंट में रहते थे। नवविवाहित जोड़ों को घर बसाने के लिए 50 हजार अमेरिकी डालर दिये जाते थे। हर कार की खरीद पर 50 प्रतिशत सब्सिडी दी जाती थी और पेट्रोल के दाम होते थे 14 सैंट यानि 8 रुपये प्रति लीटर। नवजात शिशु के माता-पिता को बच्चे के लालन-पालन के लिए 5000 अमेरिकी डालर प्राप्त होते थे। गद्दाफी ने देश के विदेशी खातों में 150 बिलियन अमेरिकी डालर छोड़े हैं, जिन पर अब नाटो की नजर गड़ गयी है और वे  लीबिया के विरुद्ध पिछले सात महीने से हो रही लड़ाई के खर्च के तहत उन्हें हड़प लेना चाहता है। नाटो और ड्रोन हमलों की बमवर्षा से लीबिया का 50 बिलियन अमेरिकी डालर का नुकसान हुआ। 
    गद्दाफी को किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता, लेकिन फिर भी इतिहास उन हमलावरों को कभी माफ नहीं करेगा, जिन्होंने इन्सानियत, मानव-गौरव, नैतिकता और राष्ट्रसंघ संविधान के उल्लंघन के घोर अपराध किये हैं।
    इन तथ्यों पर कोई विवाद नहीं है कि कर्नल गद्दाफी अपने लोगों का मुखिया था, सही या गलत। अमेरिका के नेतृत्व में 40 देशों के एक झुंड (नाटो) ने आकाश से उस पर हमला किया। अमेरिका ने बेनगाज़ी की राष्ट्रीय संक्रमण परिषद (एनटीसी) को हथिया लिया और उनकी हथियारों से, धन से, पश्चिमी मीडिया और अमेरिकी ड्रोनों से भरपूर सहायता की और उनका एक ही लक्ष्य था लीबियाई नेता को ध्वस्त करना। यही एक छिपा एजेंडा था अमेरिका और उसके साथियों का कि वह किसी भी तरह लीबिया के तेल और सम्पदा पर नियंत्रण कर सके। अब ये तथ्य स्थापित हो गये हैं कि कर्नल गद्दाफी को तथाकथित क्रांतिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया, जिनकी जमीन और आकाश से नाटो सहायता कर रहा था। कर्नल गद्दाफी को हिरासत में मार दिया गया और बड़ी बर्बरता से उसके पावों, हाथों और टांगों पर गोलियों की बौछार की गयी, जिससे कि अमेरिका की शक्ति के घमंड का प्रदर्शन हो सके। दूसरा अपराध एनटीसी के सहयोग से नाटो ने जो किया वह भी माफी के काबिल नहीं है। सिरते की गलियों में उसके मृत शरीर को बालों से पकड़कर खिंचते हुए अपमानित और लांछित किया गया। तीसरा अपराध नाटो ने जो किया वह धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ था, जब उन्होंने गद्दाफी के मृत शरीर को सिरते की एक गोश्त की दुकान में डम्प कर दिया। कहते हैं कि एक बार हजरत पैगम्बर उस समय खड़े हो गये थे, जब एक यहूदी के मृत शरीर को दफनाने के लिए लेजाया जा रहा था, उन्होंने अपने अनुयायियों को बताया था कि मृत शरीर का सम्बंध एक इन्सान से होता है, जिसे पूरी तरह से सम्मानित किया जाना चाहिए। दुनिया में कहीं भी मुझे इतनी शर्मनाक घटना देखने को नहीं मिली, जहां किसी इन्सान के मृत शरीर को इतनी बुरी तरह से अपमानित और लांछित किया गया हो। क्रांति के संरक्षक ओबामा कैसे एक मुस्लिम के मृत शरीर को अजनबियों द्वारा किसी अनजानी कब्र में रहस्यमय तरीके से दफन किये जाने केा तर्कसंगत ठहरा सकते हैं?, जैसा कि एनटीसी ने दावा किया है। क्या वास्तव में उसे दफनाया गया?
    कर्नल गद्दाफी के राजनीतिक फलसफे को न तो पश्चिमी शक्तियां समझ सकीं और न हीं उनके अरब शासकों ने समझा। गद्दाफी ने अपने-आपको किसी पदनाम या रैंक अथवा स्टाइल से जोड़ने से साफ इन्कार कर दिया। महात्मा बुद्ध और माओत्सेतुंग से फलसफे से प्रभावित कर्नल गद्दाफी ने 1984 में अपने फलसफे को ‘ग्रीन बुक‘ में दर्शाया, जिसके कारण उसे अरब बादशाहों और सुल्तानों का कहर सहना पड़ा, जिन्होंने ‘ग्रीन बुक‘ के फलसफे में एक बड़े खतरे को देखा और जो उनके हितों से मेल नहीं खाता था। समाज के पुनर्निमाण के सम्बंध में कर्नल गद्दाफी ने अपनी ‘ग्रीन बुक‘ में लिखा है।
    ‘‘आज की दुनिया की राजनीतिक पद्धतियों में शासन का जो एक तानाशाही तरीका है, समाज की निगरानी से कानून की अवहेलना को रोककर पुनर्निमाण का रास्ता अख्तियार किया जा सकता है और यही शासनतंत्र के विरुद्ध क्रांति का एक तरीका है और यही हिंसा है। हिंसा अथवा क्रांति अगर ये समाज के पतन की भावनाओं को दर्शाता है, तो यह पूरे समाज ़द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह कुछ उन पहल करने वाले और साहसी लोगों के प्रतिनिधियों द्वारा ऊपर उठने के लिए अपनाया जाता है, जो इसे समाज की इच्छा बताते हैं। जो भी हो, यह तानाशाही की ओर ले जाता है और इस क्रांतिकारी पहल से शासनतंत्र में बुराइयों को बढ़ाता है। इसका मतलब यह है कि शासनतंत्र अभी भी तानाशाह है। इसके अलावा ताकत आद्यैर हिंसा के द्वारा परिवर्तन अलोकतांत्रिक है, हालांकि यह पिछली अलोकतांत्रिक स्थिति के अस्तित्व का परिणाम होता है। समाज अभी भी पिछड़े समाज के परिणामों के इर्दगिर्द उलझा हुआ है, तो फिर इसका समाधान क्या है?‘‘
    मूलरूप से अरबी में लिखी ‘ग्रीन बुक‘ को लीबिया के स्कूलों में पढ़ाया जाता था, इसके फ्रांसीसी और अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध थे। कनर्ल गद्दाफी स्वयं यह मानते हैं कि शासन में गिरावट हिंसा को जन्म देती है और क्रांति में सहायक होती है। जो भी हो कर्नल गद्दाफी ने कोई राजनीतिक लाभ उठाने के लिए कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया। 1969 में जब गद्दाफी ने बादशाह इदरिस को बिना हिंसा और बिना खून की एक बूंद बहाये बाहर कर दिया था। इतिहास गवाह है कि कर्नल गद्दाफी 2011 में अपनी थीसिस के परिणामकारी प्रभावों को महसूस करने में असफल रहे, जब लीबिया की 92 प्रतिशत साक्षर जनता इसे पढ़ सकती थी। किसी भी अन्य अरब बादशाह और शेख की सरकार ने ‘ग्रीन बुक‘ की शिक्षाओं और विचारों को जनता तक पहुंचाने की हिम्मत नहीं दिखायी, जो कि ‘ग्रीन बुक‘ द्वारा लीबिया के लोगों तक पहुंचाये गये। इसके अलावा कर्नल गद्दाफी यह समझने में भी असफल रहे कि भौतिकवाद, धन और शक्ति से मिलकर आधुनिक दुनिया का नया संस्कृति का ढंग उभर रहा है। लीबियाई नेता ने अपने लोगों को सब कुछ दिया, नाम, शौहरत, शिक्षा और खुशहाली। फिर भी वह तथाकथित नव बुद्धिजनों को सŸाा और धन में भागीदार बनाने में असफल रहे। अपने ही देश में वे अपने को असुरक्षित समझने लगे, जहां उन्हें और उनके लोगों को अपने पड़ोसियों की राजनीतिक और सांस्कृतिक जिंदगी से कटकर रहने पर मजबूर किया। वे अपनी राजनीतिक सीमाओं को बढ़ाना चाहते थे और लीबिया के बाहर अपने पंख फैलाना चाहते थे, लेकिन अनेक कारणों और मजबूरियेां के कारण वे असफल रहे। मई, 2006 में मुझे उनसे गुफ्तगू करने का मौका मिला, जब वे त्रिपोली में एक गैरसरकारी संगठन की बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने एक लिखित भाषण की मांग की और उन्हें अरबी में अनुवाद सहित वह भाषण दिया गया। मैं लोगों के साथ उनके लगाव के सिद्धांत पर जोर देता रहा, जैसा कि भारतीय संविधान के अध्याय 3 में बुनियादी और नागरिक अधिकारों के साथ शासन पर जोर दिया गया है। काश, उन्होंने अपने इस विचार को कार्यान्वित किया होता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। 
    कर्नल गद्दाफी को लीबिया के रेगिस्तानों में अनजानी कब्र में दफना दिया गया है। अमेरिका ने अपने हितों पर जोर देने के लिए और लीबिया के तेल और जमीन पर नियंत्रण मजबूत करने के लिए लीबिया के विभाजन और त्रिविभाजन में दिलचस्पी दिखायी। लीबिया में 140 कबीले हैं, जिनकी भिन्न-भिन्न बोलियां हैं, भिन्न-भिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और नस्लीय पहचान हैं, तो उनको इतनी आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता। कर्नल गद्दाफी  बर्बर कबीले से जुड़े हैं, जो सबसे मजबूत और प्रभावशाली है। कर्नल गद्दाफी के बेटे सैफ  को हर स्तर पर मजबूत नेतृत्व देना है। अन्य लीबियाई कबीले कभी भी एनटीसी के नेतृत्व को स्वीकर नहीं करेगें जो नाटो के हाथ का एक खिलौना है। अमेरिका और नाटो कभी भी इन लड़ाकू और ताकतवर कबीलों का भरोसा नहीं जीत सकते, जिनके जीने और रहने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं। अमेरिका-नीत नाटो के हित लीबिया से टकराते हैं, खासकर उनकी भू-सम्पदा और तेल में भागीदारी के मामले को लेकर। यूरोपीय देशों को इस लीबियाई लूट में कोई मोटा हिस्सा नहीं मिल सकता, जैसा कि ईराक में हुआ था। नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री अमेरिका की कठपुतली हैं और 140 कबीलों में विभक्त लीबियाई लोगों का भरोसा जीतने के वे काबिल नहीं हैं। उनका बेटा सैफ जो कानून और भावना के अनुसार उनका उŸाराधिकारी है, कभी भी अपने पिता के कबीलों और अन्य कबीलों के साथ लीबिया के पश्चिमी अथवा दक्षिणी किनारे से उभरकर सामने आ सकता है। नाटो ने इस स्थिति को भांप लिया है। अमेरिका और नाटो पूर्वी-अरबी कबीलों को आर्थिक सहायता देकर हो सकता है लीबिया के पश्चिमी और दक्षिणी कबीलों से कुछ सहयोग प्राप्त कर ले। इससे पहले कि अमेरिका और नाटो का लीबिया में वियतनाम जैसा हश्र हो, लीबिया एक खूनी गृहयुद्ध में जा सकता है। जियोवादी लाबी और इजरायल के प्रति ओबामा का समर्पण अमेरिका को भारी पड़ सकता है। अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुनाव में ओबामा को यहूदी सहयोग मिलना मुश्किल ही है, क्योंकि मुस्लिम पैदाइश ओबामा को वे और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकते।
    अमेरिका-नीत नाटो के लीबिया के विरुद्ध हमले ने राष्ट्रसंघ घोषणापत्र की धारा-2(7) का सीधे-सीधे उल्लंघन किया है। पूरी दुनिया कानून के शासन के प्रति संतुष्ट रहने में असफल रही है।
    ‘न्यू वल्र्ड आर्डर‘ की कमान के अनुसार, भूमध्यसागर और उŸारी अफ्रीका के सारे क्षेत्र को कब्जाया जाना है। अमेरिका की नई रणनीति है कि वह पूरे उŸारी-अफ्रीकी क्षेत्र, मोरितानिया, पश्चिमी सहारा (जिसे इस लेखक ने 1971 में मोटरसाइकिल पर पार किया था), मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया और लीबिया पर कब्जा जमाया जाय। ज्यूरिक में 1894 में प्रथम विश्वयुद्ध से काफी पहले एक जियोवादी गुप्त अधिवेशन में इस प्रभाव का एक प्रस्ताव स्वीकार किया गया था कि फिलस्तीन सहित ओटोमान (टर्किश) साम्राज्य के अन्तर्गत  फिलस्तीन सहित तमाम अरब प्रायद्वीप पर कब्जा जमाया जाय। आखिरी अरब नेता कर्नल गद्दाफी के चले जाने से अमेरिका की खिलाफत करने वाले समाप्त हो गये। अब अमेरिका को अफ्रीकी क्षेत्र में भूमध्यसागर के दोहन के द्वारा अपनी धाक जमानी होगी। जहां पिछली चार सदियों से इटालियन, यूनानी और फ्रांसीसी और अंग्रेज भी अभी तक अपने पांव पसारने में असफल रहे थे। नाटो ने आज यह हिम्मत दिखायी है अरब प्रतिरोध अभियान अभी लगता है कि अरब प्रतिरोधी नेता कर्नल गद्दाफी के खातमे के बाद ढुलमुल हो गया है। अरब दुनिया और साथ ही उŸारी और मध्य अफ्रीकी प्रायद्वीप में अमन के हालात ठीक नहीं हैं। और यही नवउपनिवेशवादी मालिकों अमेरिका और नाटो को माफिक आता है। अब उम्मीद सिर्फ भारत से हो सकती है, जो गुटनिरपेक्ष देशों को पुनर्जीवित करके उनकी क्षमता को बढ़ा सकता है। गुटनिरपेक्ष देश बदलते हुए समीकरणों और गठबंधनों और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक में कमजोर नेतृत्व के कारण अपनी भूमिका ठीक से अदा नहीं कर पाये।
    टकरावग्रस्त दुनिया में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और लोकतंत्र के अधिकार क्षेत्र के समर्थन के द्वारा तानाशाही और सŸाावादियों के खिलाफ मजबूत तूफान और आंधी उठ खडे़ हुए हैं। गौरव के साथ जीने और समानता में पनपने की भावना को इस बदलती दुनिया में उपेक्षित नहीं किया जा सकता, चाहे वहां बादशाही हो, सुल्तानशाही हो अथवा शेखशाही। बड़ी शक्तियों की हथियारों की दौड़ को उनकी उपनिवेशिक आकांक्षाओं के साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता। लीबिया सरकार के गिर जाने से अरब दुनिया शायद यह महसूस करे कि उनके लिए गुटनिरपेक्ष अभियान के देशों का हिस्सा बनना वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली में महत्वपूर्ण होगा। नये विश्व आर्डर के संक्रमण के चलते हुए भारत को अपनी सदियों पुरानी नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति के साथ अपनी भूमिका निभानी होगी और इसकी आधुनिक राजनीतिक इच्छा से विश्व में पूर्ण निरस्त्रीकरण, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना होगा
 
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प्रो. भीमसिंह, नेशनल पैंथर्स पार्टी के चेयरमैन हैं, वरिष्ठ अधिवक्ता, राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य और भारत-अरब एकता परिषद के चेयरमैन हैं, दुनिया में वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने 1971 में सहारा रेगिस्तान को मोटरसाइकिल पर पार किया था। वे पिछले 30 वर्षों से अरब दुनिया की यात्रा करते आ रहे हैं। यासिर अराफात, सद्दाम हुसैन, स्लोबोदान मिलोसेविच, बालकन के नेताओं के साथ उनके निकट सम्बंध रहे हैं।
 

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