डॉ. हर्ष नंदिनी भाटिया ब्रज साहित्य और लोग कला की विदुषी नारी के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहीं।
उनकी कई विविध विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित हैं और पत्र पत्रिकाओं में लेख, आलेख तथा परिचर्चाएं प्रकाशित होती रही हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार दिनांक 5 जून 2011 को लिया गया जबकि दिनांक 8 जून 2011 को उनका आकास्मिक निधन हो गया।
आपने नारी पर लिखा भी खूब है, इसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली?
मैंने बचपन से लेकर आज तक हर जगह यही देखा कि नारी पर हर प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते हैं, हालांकि मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। न विवाह के बाद। हमें हमेशा हर प्रकार की सुविधाएं मिलीं। हम दो बहनें और एक भाई (मानसिक रूप से अपंग) सदा साथ रहे। आसपास देखते थे कि बच्चियों को अधिक दबाव में रखा जाता है। भाई के घर में होते हुए भी हम दोनों बहनों को कभी भी दोयम दर्जा नहीं मिला। हमें हमेशा बराबरी से देखा गया। समानता सदा घर में रही। वातावरण में सभी नारियों, पडाेसियों की बेटियों के व्यवहार को देखते हुए लगा कि बालिका कितनी विवश है। उन्हीं देखी और सुनी बातों को कागज पर उतारने का मन किया और जहां भी नारी सशक्त मैंने पायी उसे लेखनी बद्ध कर दिया।
राधा पर आपने लिखा है कृष्ण पर भी आपने जरूर लिखा होगा क्योंकि मान्यता है कि राधा और कृष्ण एक दूसरे में समाहित थे इस बारे में आपका क्या विचार है?
हां मैंने कृष्ण के लिए भी कई लेख लिखे। दोनों ही हमारे इष्ट हैं, दोनों के बारे में खूब पढा है, समझा है और लिखा है किंतु राधा को सदा बडाभागिनी माना है-
राधा तू सदा बडभागिनी कौन ताण्या कौन।
तीन लोक तेरह भुवन सब तेरे आधीन।
आपने भारती महिला विद्यालय, कंपनी बाग में प्रिंसिपल के नातें काम किया क्या अनुभव रहे आपके, कुछ उल्लेखनीय बताएं?
हां वहां मैंने कार्य प्रारंभ किया। जब पद भार संभाला तब वहां कुछ भी नहीं था, सारी प्रक्रिया शुरू से ही स्थापित करनी थी, पूरी व्यवस्था शून्य से करने के कारण मुझे बहुत प्रयास करना पडा। घर में मेरे पास पूरा परिवार था, मेरा बेटा बहुत छोटा था। बड़ा कठिन समय था मेरे लिए वह। परंतु मुझे श्रीमती अनमोल कुमारी घर से विशेष आग्रह करके ले गई थीं मैंने अपना सर्वस्व दिया, सभी कुछ व्यवस्थित किया, प्रबंध किया। यह विद्यालय पच्चीस विद्यार्थियों से शुरू किया आगे चल कर इसकी नामांकन संख्या बढती चली गई। उस वक्त सरकार की योजना थी कि प्रौढ महिलाएं पढे, लिखें और साक्षर बनें। प्रौढ महिला संघ की श्रीमती कंचन लता सब्बरवाल उकी अध्यक्षा थीं, सरकार की ओर से नियुक्त शहर की कतिपय महिलाओं को उनकी सहायता से जोडा गया(अपने उस समय में वापिस लौटती हुई वह हेमलता, सुहेला आदि कई नाम लेती रहीं)। महेश्वरी कॉलेज की आचार्या श्रीमती अनमोल कुमारी, महिला सहायक संघ की सदस्या थीं। महिलाओं को प्रोत्साहन देने के लिए रु चालीस मात्र प्रतिमाह देने की व्यवस्था की गई जिससे अधिक से अधिक महिलाएं साक्षर बनें और मैंने इस यज्ञ में पूरा-पूरा योगदान किया। रिक्शेवालों की पत्नियां, परित्यक्त महिलाएं, बेसहारा महिलाएं आकर खूब जुडने लगीं, इस बहाने मैं अनेक महिलाओं के संपर्क में आई, उनकी मजबूरियों को नजदीकी से जाना। सभी को मैंने बडा श्रम और समय लगा कर बडी लगन से प्राथमिक शिक्षा दी। मैं ऐसी बहुत सी महिलाओं से मिली जिनकी सासें उन्हें तंग किया करती थीं या जिनके पति उन्हें बिना बात के शराब पीकर पीटते थे। परंतु जब इन महिलाओं को रुपए मिलने लगे तब उन रुपयों के लालच में इनके संबंध अपनी सासों से या पतियों से सुधरने लगे और महिलाएं लगातार पढाई करने आती रहीं। कभी-कभी प्रोत्साहित करने के लिए हम साडियां या बर्तन भी इन्हें प्रदान करते थे जिससे शिक्षा बरकरार रहे। पांच वर्षों में यह कार्य सुचारु रूप से चलने लगा। बाद में तो कई पति और सासें मुझसे मिलने भी आने लगे। कई बार मैंने उनके झगड़े निपटाने के लिए उन्हें अपने पास बुलाती थी, समझाती थी और परिणाम यह हुआ कि परिवार बने, उनमें निकटता आई। महिलाएं यहां सिलाई-कढाई सीखती थी, खूब रुचि से कार्य करती थीं।
आपने कई वर्षों तक होमगार्ड में कंपनी कमॉडर के रूप में भी कार्य किया, ऐसे पद पर कार्य करते हुए किसी प्रकार की समस्या क्या आपके सामने आई, बताएं।
मैंने बारह वर्षों तक होमगार्ड में कंपनी कमांडर के रूप में कार्य किया। मैं यहां पर महिला टुकडी क़ी कमांडर रही। यह एक बहुत जिम्मेदारी का कार्य था। ड्रेस पहन कर राइफल चलाना, सभी महिला टुकडी क़ो प्रशिक्षित करना बहुत कठिन था। जब सभी की डयूटी नुमाइश में लगती या कभी कोई मंत्री आता तब सुबह पूरे परिवार का भोजन बनाकर, ड्रेस पहनकर समय पर निर्धारित स्थान पर टुकडी क़े साथ पहुंचना बहुत कठिन कार्य होता था परंतु सभी कुछ किया और हर प्रकार से मैंने अपना सौ प्रतिशत दिया।
सशक्त महिला से आपका क्या तात्पर्य है तबका, जति, गुण धनार्जन आदि।
मेरा मानना है कि जो किसी भी कठिन से कठिन कार्य को सहज रूप से सुगम बना सके वही सशक्त है। जो यह न सोचे कि मैं नारी हूं, कमजोर हूं और मैं इस कार्य को नहीं कर सकती। इस बात का कोई लेना-देना नहीं है कि क्या तबका है और क्या जाति है। किसी भी व्यक्ति के गुण उसे सशक्त बनाते हैं। व्यक्ति चाहे वह नर हो अथवा नारी, जब वह पूर्ण रूप से सशक्त होता है तब ही धन की वर्षा स्वत: ही होती है। सफलता उसे पग-पग पर मिलती है। नारी कठिन परिश्रम से कभी नहीं पीछे हटती अत: धन अपने आप बरसता है। इसीलिए नारी को लक्ष्मी का रूप माना गया है। जैसा कि मैं आपको पहले भी बता चुकी हूं मैंने बहुत सी महिलाओं को प्राथमिक शिक्षा दी, साक्षर बनाया और निर्धारित मानदेय वे प्राप्त करती थीं जिससे उनका सम्मान बढता था। कई सासों ने अपनी बहुओं को और पतियों ने अपनी पत्नियों को इसीलिए अपनाया क्योंकि वे उन्हें सशक्त मानने लगे थे। धनार्जन एक महत्वपूर्ण पहलु है जिसे हम अस्वीकार नहीं कर सकते।
सशक्तिकरण का पैमाना आपकी दृष्टि में क्या है और क्या होना चाहिए आपने जीवनभर सशक्त नारी के रूप में रहीं खूब पढा, खूब लिख, आपके खूब पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हुए। आज जब आप शारीरिक रूप से अशक्त हैं फिर भी किन-किन क्षेत्रों में आप अभी भी अपने को सशक्त मानती हैं?
मैं मानती हूं कि नारी अपने काम, परिश्रम और लगन से सशक्त बन सकती है। पढ-लिख कर नारी सशक्त बने जिस क्षेत्र में रूचि हो, उसमें उच्च शिक्षा प्राप्त करे, अपने को हर प्रकार से मेहनत कर मजबूत बनाए। ज्ञान में बहुत बडी शक्ति है, जिसके पास ज्ञान है वही व्यक्ति मजबूत है। उसे कोई भी व्यक्ति बेवकूफ नहीं बना सकता। महिलाओं को अक्सर बेवकूफ ही समझा जाता है क्योंकि उन्हें बहुत -सी बातों का व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता क्योंकि उन्हें बाहर के वातावरण से सामना करने का अवसर कम मिलता है। परिवार तथा आस-पास के मिलने-जुलने वाले व्यक्ति नारी को कमजोर मानकर उसका तरह-तरह से लाभ उठाने कोशिश करते हैं। नारी को अपने विचारों में दृढता लानी होगी। अपने को लोक व्यवहार से जोडना होगा, तार्किकता का विकास करना होगा, वैज्ञानिकता पर आधारित सोच के आधार पर जीवन में निर्णय लेने होंगे तभी नारी सशक्त मानी जाएगी और अन्य लोग भी उसे सशक्त मानने के लिए मजबूर होंगे।
मैं मानती हूं कि मैं अब आने-जाने में असमर्थ हूं। वैसे समर्थ भी होती तो भी बैठकर लेखन कार्य ही करती और भी वही कर रही हूं। विचारों में आज भी नई-नई परियोजनाएं जन्म लेती रहती हैं। लोक कला पर मेरी हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें मैंने अपने विचार प्रकट किए हैं। लोक -साहित्य और लोक-व्यवहार आज मरता जा रहा है। लोक-गीतों को आजकल कोई महत्व नहीं देता, बस, फिल्मी गीत ही बच्चे क्या बडे भी पंसद करते हैं। मुझे लगता कि अभी इन सभी क्षेत्रों में बहुत सारा काम होना बाकी है जो नवीन पीढी क़ो करना चाहिए।
संयुक्त परिवार में दादी और नानी की भूमिका को आप कैसे स्वीकार करती हैं?
परिवार को नियंत्रित रखने में दादी-नानी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। पुरानी चीजों का उपयोग कर नवीन रूप देने में दादी-नानी का प्रमुख योगदान है। घर की बच्चियों को व्यवहार कुशल बनाने में उनका बहुत योगदान है। जहां बडे होते हैं वहां बच्चों का पालन-पोषण भिन्न प्रकार से होता है। दादियों-नानियों का सबसे बडा काम है कला, संस्कृत और संस्कारों को जीवित रखना है उन्हें अगली पीढी तक पहुंचाना। आज पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव सभी पर बहुत अधिक है उससे संयुक्त परिवारों में दादियां-नानियां ही थोडा बहुत बचा कर रख पा रही हैं वरना आजकल के बच्चे किसी की कहां सुनते हैं।
नई पीढी क़ी नारियों को आप सशक्त बने रहने के क्या टिप्स देना चाहेंगी?
मैं यही कहना चाहूंगी कि नई पीढी क़ी नारियां सर्वप्रथम साक्षर हों, उच्च तथा उच्चतम शिक्षा प्राप्त करें, अपने देश से प्यार करें, अपनी संस्कृति को जाने, समझें, पहचानें, आत्मसात करें और उसे जीवित रखने में योगदान करें। सबसे बडी ज़िम्मेदारी उनकी है कि उसे अगली पीढी तक स्थानांतरित करें। भारतीय नारियों को अपनी मर्यादा का ज्ञान होना आवश्यक है और उनका वे पालन करें। लोक-कला, लोक-संस्कृति और संस्कारों को जीवित रखें। भारत का नाम विश्व में रोशन करें। अभी कुछ ही दिन पहले मैंने एक कविता लिखी जो 'हमारी धरती' पत्रिका में प्रकाशन के लिए भेजी है इसकी कुछ पंक्तियां सुनाती हूं-
आज लक्ष्मीबाई-सी हों भारतीय नारियां।
उतर जाएं आज सिर से पश्चिमी खुमारियां।
ये खुमारियां ही रख देंगी हमें तोडक़र।
युग-युगों की दासता के बंधनों को तोडक़र॥
(डॉ रचना भाटिया, नंदन भारती नगर, मैरिस रोड़, अलीगढ़)
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